Wednesday, June 23, 2010


दुनिया के बड़े-बड़े सवाल चुप्पी में से उपजे हैं और दुनिया के बड़े-बड़े प्रश्नों के उत्तर वाणी नहीं, कर्म से दिए गए हैं। सीता का पृथ्वी प्रवेश सीता के द्वारा पूछा गया विकट प्रश्न भी है और इस प्रश्न का उत्तर भी कि वे निष्पाप थीं या नहीं।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के अन्त में जब कुश और लव रामकथा सुना चुके होते हैं, और अश्वमेध यज्ञ के बाद सारे अयोधयावासी तृप्त हुए पड़े थे तो एक आवाज उठी कि राम सीता को फिर से स्वीकार कर अपना घर बसाएं। राम ने सीता का यूं ही परित्याग नहीं किया था। वे जानते थे और पूरे अन्त:करण से मानते थे कि सीता निष्कलंक है। पर महज इस लोकापवाद के भय से कि राजा को संदिग्ध आचरण वाला मानकर कहीं पूरी प्रजा ही दुराचारी न हो जाए, राम ने सीता का परित्याग किया था। राम साफ-साफ कहते हैं कि ‘सेयं लोकभयात् ब्रह्मन् अपापेत्यभिजानता, परित्यक्ता मया सीता’ (उत्तरकाण्ड, सर्ग 97, श्लाक 4) ‘हे, ब्रह्मन् वाल्मीकि, मैं जानता हूं कि सीता निष्पाप है, पर लोकभय से ही मैंने इसका परित्याग किया है।’ राम कहते हैं कि अगर वाल्मीकि जन समाज में सीता की निष्पापता की घोषणा कर दें और लोग मान लें तो वे सीता को फिर से ग्रहण करने को तैयार हैं। यहां तक तो सब सामान्य गति से चल रहा होता है। पर असाधारण घटना तब घटती है, जब सीता राजमहल में प्रवेश करती हैं। उन्होंने उस वक्त गेरुआ कपड़े पहन रखे थे, चेहरा नीचे की ओर झुका था और उनकी आंखें नीचे पृथ्वी की ओर देख रही थीं। बिना पलक ऊपर उठाए और बिना पल भर की प्रतीक्षा किए आते ही सीता ने पृथ्वी को सम्बोधित करते हुए जो कहा, उसे वाल्मीकि ने तीन भव्य श्लोकों में काव्यबध्द कर दिया है जिन्हें पूरी तरह अर्थसहित उध्दत नहीं करेंगे तो हम महान अन्याय कर रहे होंगे:यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये।
तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति।मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये।
तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति।
यथैतत् सत्यमुक्तं मे वेह्नि रामात् परं न च।
तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति॥
(उत्तराकाण्ड, सर्ग 97, श्लोक 14-15)
अर्थात् ‘अगर मैंने मन से राम के अलावा किसी के बारे में न सोचा हो तो माधवी देवी (पृथ्वी) मुझे अपने में समा लें। अगर मैं मन, वाणी और कर्म से सिर्फ राम की अर्चना करती हूं तो यह माधवी देवी मुझे अपने में समा लें। अगर यह सच है कि राम के अतिरिक्त मैं किसी को नहीं जानती तो यह माधवी देवी मुझे अपने में समा लें।’ इसके बाद सीता पृथ्वी में समा जाती हैं।
अब तर्क यह हो सकता है कि क्या कहीं ऐसे पृथ्वी फट जाया करती है? हो सकता है वाल्मीकि ने एक कोरी गप मार दी हो। पर वाल्मीकि को ऐसी गप हांकने की क्या जरूरत थी? और अगर यह घटना इस देश के बच्चे को जन्म से पहले ही, गर्भावस्था में ही मानो याद करा दी जाती है तो जाहिर है कि अपनी निष्पापता साबित करने की चुनौती में सीता ने कुछ ऐसा विकट कर्म किया था कि उसे पृथ्वी में समा जाने से कम कोई उपमा इस देश को और उसके आदिकवि को सूझी ही नहीं। हो सकता है कि उन्होंने अपने ही प्रयासों से पृथ्वी में स्वयं को विलीन कर वैसे ही समाप्त कर दिया हो जैसे बाद में राम ने स्वयं को जल को समर्पित कर महासमाधि ले ली थी।
पर हमारा कहना कुछ और है। सीता ने अपनी निष्पापता साबित भी कर दी और उन्होंने खुद को भी नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया? क्यों नहीं वे प्रजा की जयजयकार और पुष्पवृष्टि के बीच फिर से अपने राम के साथ सुखमय जीवन बिताने को तैयार हुईं? राम तो उन्हें निष्पाप मानते ही थे और सीता को भी इस बात का अखंड विश्वास था, ऐसा वाल्मीकि रामायण में कई बार स्पष्ट हो जाता है। सिर्फ राजा की मर्यादा की रक्षा के लिए, लोकापवाद से बचने के लिए ही राम ने सीता का परित्याग किया, यह भी राम ने एकाधिक बार स्पष्ट कर दिया था। फिर जब वाल्मीकि के कथन पर जन समुदाय सीता को निष्पाप मानने और क्षमायाचनापूर्वक स्वीकारने को तैयार था तो क्यों नहीं सीता ने लोकस्वीकृति को महत्व दिया और क्यों स्वयं को पृथ्वी में समा दिया?
दुनिया के बड़े-बड़े सवाल चुप्पी में से उपजे हैं और दुनिया के बड़े-बड़े प्रश्नों के उत्तर वाणी नहीं, कर्म से दिए गए हैं। सीता का पृथ्वी प्रवेश सीता के द्वारा पूछा गया विकट प्रश्न भी है और इस प्रश्न का उत्तर भी कि वे निष्पाप थीं या नहीं। सीतारामचरित के इतिहास के पिछले पृष्ठों को थोड़ा पढ़ लिया जाए। युध्दकाण्ड के अंत के बाद, अपहरणकर्ता राक्षस के अपने पति के हाथों मारे जाने के बाद प्रसन्न सीता अपने पति से मिलने जा रही हैं तो उनके शरीर के अंग लज्जा के मारे अपने में ही सिमटते जा रहे हैं। (लज्जया त्वलीयन्ती स्वेषु गात्रेषु मैथिली, युध्दकाण्ड, सर्ग 114, श्लाक 34) और वे विस्मय, प्रभूत हर्ष और स्नेह के साथ पति के सौम्य मुख को निहारने लगीं ‘विस्मयाच्च प्रहर्षायच्च स्नेहाच्च पतिदेवता, उदैक्षत मुखं भर्तु: सौम्यं सौम्यतरानना (वही, श्लाक 35) पर इस प्रतीक्षारत, सकुचाती, लज्जामयी और प्रेमपरिपूर्णा सीता को सुनने को क्या मिला? यह कि राम चाहते हैं कि सीता पहले अपना चरित्र शुध्द करके दिखाएं। उस वक्त राम इतने दुर्विनीत हो गए थे कि सीता से कहने लगे कि वह जहां चाहें, जिसके पास चाहें चली जाएं। जाहिर है कि राम ने यह उध्दत वाणी भी लोकापवाद के भय से कही। अन्यथा वे तब भी सीता को हृदयप्रिया ही मानते थे, (युध्दकाण्ड, सर्ग 115, श्लाक 11) हालांकि तब उन्हें लोक से कोई वैसी शिकायत नहीं मिली थी जैसी राज्याभिषेक के बाद मिली। पर सम्भावित लोकापवाद के भय से रूखे और निष्ठुर राम को सीता ने कई तरह से समझाया, उलाहना दिया, पर राम अपनी बात पर अड़े रहे, तो लक्ष्मण से सीता ने चिता तैयार करने को कहा और अग्नि में प्रवेश कर लिया, यह कहते हुए कि अगर मेरा चरित्र शुध्द हो तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें-कर्मणा मनसा वाचा यथा नातिचराम्यमहम् राघवं सर्वधर्मज्ञं तथा मां पातु पावक: (युध्दकाण्ड, सर्ग 116, श्लोक 27)। अग्निदेव ने सीता की रक्षा कर ली।
क्यों नहीं दूसरी बार भी सीता ने अपनी रक्षा की प्रार्थना कर राम के साथ शेष जीवन बिताने की इच्छा वैसे ही प्रकट की जैसे अग्निप्रवेश के समय की थी? क्या इसलिए कि पहली बार उन पर संदेह उनके पति ने किया था जिसका निवारण करना, तमाम परिस्थितियों को देखते हुए, सीता ने अपना कर्तव्य समझा और दूसरी बार उन पर संदेह उनके पति ने नहीं बल्कि समाज ने किया था जिसके निवारण की कोई जरूरत उन्हें नहीं लगी? क्या इसलिए कि अपने पति के संदेह का निवारण करना सीता को अपना कर्तव्य लगा, पर समाज द्वारा उठाए गए संदेह का निवारण करना उन्हें कतई अपना कर्तव्य नहीं नजर आया?
क्यों? इसलिए कि अपने गहरे मौन के जरिए इस बार सीता ने राम को जता देना चाहा कि बेशक इस बार आक्षेप तुमने नहीं, समाज ने लगाया हो, पर इस बार असली दोषी तुम हो। सीता मानो कहना चाहती हैं कि हे राम, बेशक मेरा निर्वासन कर, मुझसे दूर रहकर अकेले में अपने हृदय को कष्ट देकर तुमने श्रेष्ठ नायक, मर्यादापुरुषोत्तम राजा का पद पा लिया हो, पर मर्यादायुक्त पति के सिंहासन तक तुम नहीं पहुंच पाए। क्योंकि इस बार आक्षेप सीता पर कम बल्कि एक राजा के आचरण पर ज्यादा था कि वे राजा होने के कारण प्रजा में अपवाद को बढ़ने दे रहे थे। तो राम को क्या करना चाहिए था? राम के पास दो विकल्प थे कि वे सीता से खुद को अलग कर लेते या सीता के साथ रहने का निर्णय कर खुद को राजपाट से अलग कर लेते। पहला विकल्प आसान था, पर दूसरा कठिन, इसलिए कि उसमें सीता को निष्पाप सिध्द करने का दायित्व भी राम पर ही आता और इसलिए भी कि सीता राम की सन्तति की मां बनने वाली थीं। पर राम ने पहला और आसान विकल्प चुना और सीता को निर्वासित कर दिया। सीता को निष्पाप साबित करने के लिए खुद को दण्डित कर दिया। वे प्रजा से कह सकते थे कि क्यों सिर्फ नारी ही परीक्षा का विषय होना चाहिए? क्यों नहीं आरोप लगाने वाली प्रजा की भी परीक्षा होनी चाहिए? अर्थात् वे सीता को, उनके बीज को धारण कर चुकी गर्भिणी सीता को, जिनकी निष्पापता पर उन्हें कभी कोई शक ही नहीं रहा ऐसी सीता को, जो उनकी निश्छलता और स्नेह पर शतप्रतिशत मुग्ध थीं, ऐसी सीता को बिना निर्वासित किए, बिना पलभर का कष्ट दिए प्रजा से कह सकते थे कि जो प्रजा ऐसी सीता को अपना नहीं सकती, वह सीता के पति राम के लायक भी नहीं।
पर राम ने ऐसा नहीं किया और दूसरी बार निष्पापता सिध्द करने के लिए बुलाई गई सीता ने अपने पति की इस दुर्बलता का, अपनी पत्नी की रक्षा कर पाने में असफलता का, पति की तुलना में अपने राजा होने को अधिक महत्व देने की प्रवृत्ति का विरोध इस तरह से किया कि बिना पति से एक शब्द कहे, बिना उसकी ओर निहारे, यहां तक कि उसी की भक्ति की शपथ उठा कर सीता पृथ्वी में समा गईं और मानो राम से कह गईं कि हे राम, तुम्हें मैं प्रिय अवश्य हूं, मेरे बिना तुम व्याकुल भी हो, पर अपनी प्रजा के आगे तुम विवश हो, प्रजा के लिए मेरा ही बार-बार अपमान करते हो, तो इस अपमान को बार-बार सहना मेरे लिए सम्भव नहीं। अनन्य प्रेम से भरे पति के साथ शेष जीवन बिताने का विकल्प सीता ने इसलिए नहीं चुना, क्योंकि एकाधिक बार साबित हो चुका था कि राम प्रजा और सीता के बीच प्रजा की निराधार आरोप वाणी को ही हमेशा अधिक महत्व देंगे और सीता बार-बार एक प्रेम से भरे पर कमजोर पति की खातिर अग्निपरीक्षाएं देने की तैयार नहीं थीं।
कौन जाने सीता क्या कहना चाहती थीं? बिना पल भर विलम्ब किए सीता का पृथ्वी प्रवेश कितने सवाल खड़े कर गया है, जिनमें से सबसे बड़ा सवाल यकीनन राम से है कि क्या पति के नाते उनका कोई कर्तव्य नहीं था? सीता के सहसा पृथ्वी में प्रवेश कर जाने से राम देर तक रोते रहे। थोड़ी देर बाद क्रोधाविष्ट होकर पृथ्वी को ललकारने लगे कि सीता को वापस करो अन्यथा वे बाणों से उसे विर्दार्ण कर पर्वत-समुद्र सहित हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर देंगे! सीता मानो अपने पृथ्वी प्रवेश से उपजे सन्नाटे में राम से कह रही थी कि हे राम, ऐसा ही उद्वेग तुमने तब क्यों नहीं दिखाया, जब मुझ पर झूठे आरोप लग रहे थे?